Saturday, June 14, 2014

क्या राज़ था की जिस को छिपाकर चले गए

आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए

चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गए
क्या राज़ था की जिस को छिपाकर चले गए 

रग रग में इस तरह वो समा कर चले गए
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गए

शुक्र-एकराम से साथ ये शिकवा घी हो कुबूल
अपना सा क्यों न मुझको बनाकर चले गए 

आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गए

लब थर-थारा के रह गए लेकिन वो ए जिगर
जाते हुए निगाह मिलाकर चले गए 

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