Monday, September 5, 2016

ख़त लिखा उसने मुझे


ख़त लिखा उसने मुझे, ख़त में लिखा कुछ भी नहीं

जैसे अब लिखने लिखाने को बचा कुछ भी नहीं !

देर तक एक दूसरे साथ हम चलते रहे,

मैंने सब कुछ सुन लिया उसने कहा कुछ भी नहीं!

अक्स मेरा आईने में अब नहीं अब नहीं आता नज़र,

मेरे उसके दरमियाँ अब फासला कुछ भी नहीं !

इस तरह बैठा है तन्हाई का दामन थाम कर,

जैसे दीवाने का अब इसके सिवा कुछ भी नहीं !

हश्र के दिन भी मिरे हक में ही होगा फैसला,

जानता हूँ प्यार करने की सजा कुछ भी नहीं !

दिल लहू हो, तब ही जलता है हथेली पर चिराग़,

सब्ज़ पत्तों के सिवा वर्ना हिना कुछ भी नहीं !

मैं न कहता था, लकीरों की फकीरी छोड़ दे,

आखरिश देखा, लकीरों से बना कुछ भी नहीं !

मैंने देखा है बियाज़े जिंदगी को गौर से,

सब के हैं इसमें पते, मेरा पता कुछ भी नहीं !

हो अगर रौशन तो बन जाता है, सूरज रात का,

वर्ना ए “सीमाब” मिट्टी का दिया कुछ भी नहीं !

--सीमाब सुल्तानपुरी

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