Thursday, August 1, 2013

आ जाएगी ज़मीन पे 'छत आसमान की।

खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की,
खिड़की खुली है गालिब उनके मकान की।

हारे हुए परिन्द ज़रा उड़के देख तो,
आ जाएगी ज़मीन पे 'छत आसमान की।

बुझ जाये सरेशाम ही जैसे कोई चिराग़,
कुछ यूँ है शुरुआत मेरी दास्तान की।

ज्यों लूट लें कहार ही दुलहिन की पालकी,
हालत यही है आजकल हिन्दोस्तान की।

औरों के घर की धूप उसे क्यों पसन्द हो,
बेची हो जिसने रोशनी अपने मकान की।

जुल्फों के पेचो -ख़म में उसे मत तलाशिये,
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेजुबान की।

नीरज 'से बढ़के और धनी कौन है यहाँ,
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की।

- गोपालदास नीरज

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