एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
इस हद तक तो गुनहगार नहीं थे हम ।
आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।
मेरे चेहरे पर सिर्फ़ तुम्हे पढ़ा लोगों ने ।
आखिर किताब थे, अखबार नहीं थे हम ।।
अपने हिस्से की ठोकरें हमने खुद ही खाई हैं ।
पत्थर ही थे, दीवार नहीं थे हम ।।
यूँ तो कीमत भी अदा कर सकते थे मगर ।
चाहने वाले थे, तेरे खरीददार नहीं थे हम ।।
तुझसे बिछड़ने को तैयार नहीं थे हम ।
सही कहते हो वफादार नहीं थे हम ।।
एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
कुमार शिकस्तगी ।।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
इस हद तक तो गुनहगार नहीं थे हम ।
आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।
मेरे चेहरे पर सिर्फ़ तुम्हे पढ़ा लोगों ने ।
आखिर किताब थे, अखबार नहीं थे हम ।।
अपने हिस्से की ठोकरें हमने खुद ही खाई हैं ।
पत्थर ही थे, दीवार नहीं थे हम ।।
यूँ तो कीमत भी अदा कर सकते थे मगर ।
चाहने वाले थे, तेरे खरीददार नहीं थे हम ।।
तुझसे बिछड़ने को तैयार नहीं थे हम ।
सही कहते हो वफादार नहीं थे हम ।।
एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।
कुमार शिकस्तगी ।।
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