Tuesday, October 7, 2014

आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।

एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।

इस हद तक तो गुनहगार नहीं थे हम ।
आखरी मुलाकात के भी हकदार नहीं थे हम ।।

मेरे चेहरे पर सिर्फ़ तुम्हे पढ़ा लोगों ने ।
आखिर किताब थे, अखबार नहीं थे हम ।।

अपने हिस्से की ठोकरें हमने खुद ही खाई हैं ।
पत्थर ही थे, दीवार नहीं थे हम ।।

यूँ तो कीमत भी अदा कर सकते थे मगर ।
चाहने वाले थे, तेरे खरीददार नहीं थे हम ।।

तुझसे बिछड़ने को तैयार नहीं थे हम ।
सही कहते हो वफादार नहीं थे हम ।।

एक तू मिल जाता, इतना काफ़ी था ।
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम ।।

कुमार शिकस्तगी ।।

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